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Muslim wedding Rules: इस्लाम में शादी को लेकर शरीयत की हिदायत क्या है?
Muslim wedding rules: मुस्लिम धर्म में निकाह शरीयत कानून के तहत किया जाता है. शरीयत में निकाल को लेकर क्या प्रावधान है, पुरुष कितनी शादियां कर सकते हैं, महिलाओं का क्या अधिकार है यहां देखें..
Muslim wedding Rules: इस्लाम में शादी को लेकर शरीयत की हिदायत क्या है?: हर धर्म में शादी, विवाह के लिए अलग-अलग परंपरा और नियम बताए गए हैं. हिंदू धर्म में विवाह 16 संस्कारों का एक हिस्सा है जिसमें वर-वधु शादी के सात फेरे लेकर सात जन्म तक साथ निभाने का वादा करते हैं. वहीं इस्लाम में शादी के नियम बहुत अलग हैं. आइए जानते हैं
इस्लाम में निकाह के लेकर क्या है शरीयत की हिदायत
शरीयत (Shariyat) के मुताबिक निकाह एक समझौता है. इसके लिए लड़का-लकड़ी दोनों की अनुमती होना जरुरी है. इसमें लड़की को सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा के लिए मेहर का प्रावधान है. मेहर की रकम प्रायः लड़के की आय के हिसाब से तय की जाती है. शरियत और मुस्लिम पर्सनल लॉ 4 शादियों की मंजूरी देता है.
इस्लाम में एक से ज्यादा निकाह की इजाजत क्यों ?
इस्लाम में बहुविवाह की इजाजत के निर्देश कुरान में 7वीं सदी में शामिल किए गए थे. उस समय अरब में जब कबीलों की लड़ाई में बहुत से पुरुष कम उम्र या जवानी में ही मारे गए थे, तब उनकी विधवा पत्नी और बच्चों की देखभाल के लिए बहुविवाह की इजाज़त दी गई, जो आज भी कानून के हिसाब से लागू होती है. मुस्लिम व्यक्ति कानूनी तौर पर एक समय में अधिकतम 4 पत्नियां रख सकता है लेकिन उसमें पत्नियों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करने की क्षमता होनी चाहिए.
इस्लाम धर्म में के अनुसार मुस्लिम कम्युनिटी में शादी समझौता और नस्ल को आगे बढ़ाने का जरिया माना गया है. कुरान ने कड़ी शर्तों के साथ मुस्लिम समुदाय को चार शादियां करने की इजाजत दी है. जिसमें पत्नियों के जिंदा रहते व्यक्ति चार शादियां कर सकता है, लेकिन इसके लिए कुछ शर्तों को मानना जरुरी है.
- पहली शर्त- पुरुष को एक से ज्यादा से शादी करने की छूट पत्नी से संतान न होने या पत्नी के गंभीर रूप से बीमार होने पर मिलती है, इसके लिए पहली पत्नी की मंजूरी होना जरुरी है.
- दूसरी शर्त- दूसरी, तीसरी या चौथी बार निकाह सिर्फ अनाथ और विधवा महिला से ही किया जा सकता है.
- तीसरी शर्त- स्त्री को हिफाजत, वेश्यावृत्ति जैसी बुराई पर रोक लगाने के लिए पुरुष को एक से ज्यादा शादी करने की परमीशन है.
- चौथी शर्त- पुरुष तभी एक से ज्यादा शादी कर सकता है जब उसमें सभी पत्नियों को समान दर्जा देने की क्षमता हो, सभी के साथ समान व्यवहार करे.
महिलाओं को नहीं अधिकार
भारत में मुस्लिम पुरुष चार शादियां कर सकता है लेकिन किसी भी महिला के पास यह अधिकार नहीं है. वह दूसरा विवाह तभी कर सकती है, जब पहले पति से तलाक ले ले.
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Disclaimer: यहां मुहैया सूचना सिर्फ मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है. यहां यह बताना जरूरी है कि ABPLive.com किसी भी तरह की मान्यता, जानकारी की पुष्टि नहीं करता है. किसी भी जानकारी या मान्यता को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह लें.
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Explainer: तलाक के बाद क्या मुस्लिम महिलाओं को मिलती है सिर्फ मेहर की रकम, या संपत्ति में अधिकार और हर्जाना भी
Mehr in Muslim Marriage: मुस्लिमों में शादी एक करार होती है. इस शादी में हक मेहर की भी महत्वपूर्ण भूमिका है. इस रस्म के ...अधिक पढ़ें
- News18 हिंदी
- Last Updated : November 20, 2024, 13:21 IST
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Mehr in Muslim Marriage: ऑस्कर पुरस्कार विजेता सिंगर और म्युजिक कंपोजर एआर रहमान और उनकी पत्नी सायरा बानू ने तलाक लेने का फैसला कर लिया है. दोनों की यह अरेंज मैरिज थी और लगभग 29 साल पहले हुई थी. एआर रहमान और सायरा बानू के तीन बच्चे हैं. उनके दो बेटियां खतीजा-रहीमा और एक बेटा अमीन है. यह शादी टूटने की वजह ‘इमोशनल स्ट्रेन’ बताया जा रहा है.
मुस्लिमों में शादी एक कॉन्ट्रैक्ट की तरह होती है. हालांकि अब बदले हुए हालात में इस बात को लेकर विवाद है कि मुस्लिमों में शादी केवल एक कॉन्ट्रैक्ट नहीं है, बल्कि यह एक संस्कार भी है. मुस्लिम शादी को कॉन्ट्रैक्ट की तरह पेश करने में शायद हक मेहर की बड़ी भूमिका है, जो इसका एक जरूरी हिस्सा है. इस रस्म के अनुसार दूल्हे को शादी के समय दुल्हन को मेहर के रूप में पैसे, गहने या कोई संपत्ति देनी होती है. जाहिर है कि तलाक के बाद एआर रहमान भी अपनी पत्नी सायरा बानू को मेहर की रकम अदा करेंगे.
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एक सिक्योरिटी है मेहर वैसे आम तौर पर इस रस्म में मेहर में कोई रकम ही अदा करने की बात की जाती है. लेकिन मेहर सोना या कोई दूसरी कीमती चीजें देने का भी प्रचलन है. इसे दुल्हन के जीवन के सुरक्षा के तौर पर भी जाना जाता है. अगर भविष्य में किसी वजह से रिश्ता न चल सके तो वह मेहर की रकम से अपना जीवन यापन कर सके. मेहर की रकम कितनी हो इसकी कोई लिमिट नहीं है. यह दोनों की आर्थिक स्थिति के हिसाब से तय किया जाता है. कुछ इस्लामिक विद्वानों ने मेहर को एक सिक्योरिटी की तरह पेश किया है. क्योंकि मुस्लिम शादी में दिया जाने वाला मेहर मुअज्जल और मुवज्जल दोनों होता है अर्थात तुरंत दिया जाता है और तलाक या मृत्यु के समय भी दिया जाता है.
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कितनी तरह के मेहर निश्चित मेहर (मेहर ए मुसम्मा) उचित मेहर (मेहर ए मिस्ल)
यदि शादी में मेहर में दी जाने वाली धनराशि या संपत्ति का जिक्र हो तो ऐसा मेहर निश्चित मेहर होता है. यदि शादी करने वाले वयस्क हैं तो वह मेहर की धनराशि शादी के समय तय कर सकते हैं. यदि किसी नाबालिग की शादी का कॉन्ट्रैक्ट उसके गार्जियन द्वारा किया जाता है तो ऐसा गार्जियन शादी के समय धनराशि तय कर सकता है, लेकिन भारत में वयस्क होने पर ही शादी करने की अनुमति है और बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम के तहत नाबालिग द्वारा विवाह करना अपराध है.
निश्चित मेहर को दो भागों में बांटा गया है. मेहर ए मुअज्जल और मेहर ए मुवज्जल
मुअज्जल मेहर यह शादी के बाद मांग पर तत्काल देय होता है. पत्नी मेहर के मूल भाग के भुगतान के समय तक पति के साथ दांपत्य जीवन में प्रवेश करने से इनकार कर सकती है. विवाह हो जाने पर मुअज्जल मेहर तत्काल देय होता है और मांग पर तत्काल अदायगी जरूरी है. यह विवाह के पहले या बाद किसी भी समय वसूल किया जा सकता है. अगर शादी नहीं हुई है और मुअज्जल मेहर की अदायगी न होने के कारण पत्नी पति के साथ नहीं रहती है. तो ऐसे में पति द्वारा लाया गया दांपत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना का वाद खारिज कर दिया जाएगा.
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मुवज्जल मेहर यह मृत्यु या तलाक हो जाने पर अथवा करार द्वारा निर्धारित किसी निश्चित घटना के घटित होने पर देय होता है. विवाह का पूर्ण पालन कराने के लिए पति को विवश करने के उद्देश्य से भारत में मुवज्जल मेहर की राशि सामान्यता अत्यधिक होती है. मुवज्जल मेहर में मृत्यु या तलाक होने पर देय होता है इसलिए पत्नी मुवज्जल मेहर की मांग विवाह के पूर्व सामान्यता नहीं कर सकती है. परंतु अगर शादी टूटने के पहले उसके भुगतान किए जाने का कोई करार हो तो ऐसा करार मान्य और बंधनकारी होता है. शादी के समय अथवा निश्चित घटना के घटित होने के पहले पत्नी मुवज्जल मेहर की मांग नहीं कर सकती है, परन्तु पति इसके पूर्व भी ऐसा मेहर उसे अदा कर सकता है. मुवज्जल मेहर में पत्नी का हित निहित होता है. उसकी मृत्यु के बाद भी वह बदल नहीं सकता. उसके मर जाने पर उसके उत्तराधिकारी उसका दावा कर सकते हैं.
उचित मेहर hindi.livelaw.in के अनुसार इसका उस स्थिति में उपयोग किया जाता है जब मेहर तय नहीं हो. ऐसे में उचित मेहर के सिद्धांत को प्रयोग में लिया जाता है. तत्कालीन परिस्थितियां, पति की आर्थिक स्थिति, सामाजिक स्थिति और समाज में अन्य महिलाओं को प्राप्त होने वाले मेहर इत्यादि नियमों को देखकर विवाह के अनुबंध में मेहर तय नहीं होने के कारण उचित मेहर रखा जाता है.
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मेहर न मिलने पर पत्नी के अधिकार पति के साथ संभोग करने से इनकार करना. कर्ज के रूप में मेहर की धनराशि का अधिकार. मृतक पति की संपत्ति पर कब्जा रखना.
यदि किसी मुस्लिम स्त्री को उसके मेहर का भुगतान नहीं किया जाता है और मेहर मुवज्जल रखा गया था या बाद में देने का कह दिया गया था और नहीं दिया गया तो ऐसी स्थिति में संकट उत्पन्न होता है.
इस स्थिति में मुस्लिम स्त्री क्या अधिकार रखती है… यदि पति द्वारा मेहर की अदायगी नहीं की जाती है तो पत्नी उसके साथ दांपत्य जीवन जीने से इनकार कर सकती है. पति तब तक दांपत्य जीवन की शुरुआत के लिए कोई मुकदमा नहीं कर सकता, जब तक वो मेहर अदा नहीं कर देता.
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विधवा की मृत्यु के पश्चात मेहर के लिए केस दायर करने का अधिकार उस स्त्री के उत्तराधिकारियों या वैध प्रतिनिधियों को प्राप्त हो जाता है.
मेहर प्राप्त करने हेतु केस करने की सीमा पत्नी या विधवा को अपने मेहर की राशि की वसूली पति या उसके उत्तराधिकारियों के विरुद्ध केस दायर करके प्राप्त करने का अधिकार है.
पत्नी की मृत्यु हो जाने पर उसके उत्तराधिकारी केस दायर कर सकते है और पति की मृत्यु की दशा में पति के उत्तराधिकारियों के विरुद्ध केस कर सकते है.
परंतु मेहर की वसूली के लिए भारतीय मर्यादा अधिनियम 1963 के अंतर्गत निर्धारित अवधि के अंदर ही मामला पेश हो जाना आवश्यक है, अन्यथा केस खारिज हो जाता है.
मेहर यदि तुरंत देय है तो पत्नी द्वारा इसकी मांग करने की तिथि से 3 वर्ष के अंदर ही वसूली का केस न्यायालय में प्रस्तुत हो जाना चाहिए.
शादी टूट जाने के बाद देय मेहर तुरंत देय हो जाता है. परिणामस्वरूप मेहर की वसूली का केस करने की परिसीमा अवधि शादी टूटने की तिथि से 3 वर्ष तक है.
पति की मृत्यु के कारण पत्नी यदि उस स्थिति में नहीं हो कि उसे सूचना नहीं है तो 3 वर्ष की अवधि तब से प्रारंभ मानी जाएगी जब विधवा को पति की मृत्यु की सूचना मिलती है.
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मेहर और दहेज दोनों अलग शरीयत के हिसाब से बाप की जायदाद में बेटे के मुकाबले बेटी का हिस्सा कम होता है. मिसाल के तौर पर जैसे कि पिता के इंतकाल के बाद अगर उनके पास एक लाख रुपये हैं, तो उसमें से बेटे को दो तिहाई और बेटी को एक तिहाई हिस्सा मिलेगा. इसी अंतर को पूरा करने के लिए लड़की की शादी के दौरान उसके शौहर के द्वारा मेहर की रकम दी जाती है, ताकि उसके पास भी उसके भाई के बराबर का हिस्सा हो. बहुत से लोग इस मेहर की रस्म को दहेज से जोड़ते हैं जो गलत है. मेहर और दहेज दोनों अलग-अलग हैं.
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मुस्लिम कानून में मुता विवाह
यह लेख Tisha Agrawal द्वारा लिखा गया है। इस लेख में, उन्होंने इस्लामी कानून के तहत मुता विवाह की प्रथा, मुता विवाह के लिए शर्तें, मुता विवाह का पंजीकरण और समाप्ति, उल्लंघन के परिणाम, मुता विवाह से संबंधित कानून, मुता विवाह के लाभ और जोखिम, भारतीय मामलों के कानून तथा ब्रिटेन और ईरान में प्रथा पर चर्चा की है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।
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इस्लामी न्यायशास्त्र के अनुसार, जिसे अनेक विचारधाराओं द्वारा विस्तृत किया गया है, विवाह अनुबंध का मुख्य उद्देश्य पुरुष और महिला के बीच संभोग को वैध बनाना है। यह ऐसे मिलन से उत्पन्न संतान को वैधता भी प्रदान करता है।
मुताह या मुता इस्लाम के अंतर्गत विवाह का एक ऐसा ही प्रकार है। यह विशेषता मुता को अन्य प्रकार के विवाहों से अलग करती है। मुताह का अभ्यास केवल शिया मुसलमानों के अंतर्गत इथना अशरी स्कूल के अनुयायियों (फॉलोवर्स) द्वारा किया जाता है। सुन्नी कानून के तहत इसे अमान्य माना जाता है। शियाओं का मानना है कि मुता करने से वे आस्तिक के रूप में अधिक मजबूत बनते हैं।
मुताह शब्द का अर्थ है ‘आनंद, खुशी या प्रसन्नता’। इसे प्रसन्नता और आनन्द के लिए किया गया विवाह माना जाता है। इसकी अवधि विवाह के समय ही तय कर दी जाती है। हालाँकि, भारत में मुता विवाह बहुत कम पाया जाता है। यह एक अनोखी व्यवस्था है और दुनिया भर में कुछ इस्लामी देशों में इसका पालन किया जाता है। यह ईरान और इराक जैसे अरब देशों में सबसे अधिक प्रचलित है। यह प्रथा ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका में भी प्रचलित है। मुताह एक अलग प्रथा है। इस्लाम में विवाह संविदात्मक प्रकृति के होते हैं और मुता विवाह इसका एक रूप है।
आइये इस प्रकार की व्यवस्था के पीछे की अवधारणा और कानूनी रुख को समझें।
मुता विवाह क्या है?
इस्लामी कानून के तहत विवाह स्वभावतः एक अनुबंध है। मुताह विवाह इसका एक रूप है। ऐसे विवाहों की संविदात्मक प्रकृति इस्लामी लोगों को विवाह के समय समझौते में परिवर्तन करने और अपनी पसंद के अनुसार शर्तें शामिल करने की अनुमति देती है। वे किसी भी चीज़ को शामिल कर सकते हैं, बशर्ते उस देश में कानूनी रूप से इसकी अनुमति हो। विवाह का समझौता और शर्तें कानूनी होंगी तथा न्यायालय में लागू होंगी। कुरान में मुताह विवाह को इस प्रकार संदर्भित किया गया है,
“और तुम्हें यह अधिकार है कि तुम अपने धन से शिष्ट आचरण के साथ पत्नियाँ ढूँढ़ो, परन्तु व्यभिचार के साथ नहीं, बल्कि अपने वादे के अनुसार जो कुछ तुमने उनसे भोगा है, उसका प्रतिफल उन्हें दो। (4:24)”
मुताह इस्लाम से पहले की अरबी परंपराओं का एक अवशेष है। प्राचीन समय में, अरब महिलाएं अपने तंबू में पुरुषों का मनोरंजन करती थीं। इस संघ ने मुता की अवधारणा को जन्म दिया। तम्बू में प्रवेश करने वाले पुरुषों को प्रवेश शुल्क देना पड़ता था। महिला जब चाहे उस पुरुष को बाहर निकाल सकती थी। वे कोई अधिकार या जिम्मेदारी साझा नहीं करते थे और केवल आनंद के लिए एक साथ आते थे। यदि इस तरह के मिलन से कोई बच्चा पैदा होता था, तो वह उस महिला का होता था। यह अवधारणा बाद में विकसित होकर एक निश्चित अवधि की व्यवस्था बन गई, जिसके लिए व्यक्ति को कुछ राशि का भुगतान करना पड़ता था। एक अन्य कहानी के अनुसार, पुरुष अपनी फसल काटने के लिए रखैलों को रखते थे, सर्दियों के दौरान उन्हें छोड़ देते थे और अगले वर्ष अलग रखैलें रख लेते थे। इससे मुता का उदय हुआ था।
मुस्लिम विवाह का एक विशिष्ट पहलू यह है कि इसमें शर्तें और प्रथाएं कभी-कभी महिलाओं के लिए लाभदायक होती हैं। विवाह से पहले पत्नी को एक धनराशि दी जाती है जिसे ‘डावर या मेहर’ कहा जाता है। मेहर का उद्देश्य महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और समर्थन करना है।
मुता विवाह में, साझेदारों को बोने वाले और अनुबंध की अवधि पहले से निर्धारित करनी होती है। विवाह विच्छेद के बाद पत्नियां पति से भरण-पोषण की मांग नहीं कर सकतीं, जब तक कि यह स्पष्ट रूप से पूर्व समझौते में शामिल न हो। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने इस मामले पर अलग रुख अपनाया है, जिस पर हम इस लेख में आगे चर्चा करेंगे। पत्नी पति की संपत्ति में किसी भी अधिकार का दावा नहीं कर सकती। यह मुता विवाह का एक महत्वपूर्ण और असाधारण स्वरूप है। समय के साथ कुछ कानूनी प्रगति हुई है जिनकी चर्चा इस लेख में आगे की गई है।
मुता विवाह के लिए शर्तें
मुता विवाह पुरुष और महिला के बीच एक अलग व्यवस्था है। इसमें कई आवश्यक शर्तें हैं जिन्हें पूरा किया जाना आवश्यक है। मोहम्मडन कानून के अनुसार मुता विवाह को वैध और लागू करने योग्य बनाने के लिए चार स्तंभ हैं: –
मुता विवाह का अनुबंध
मुता विवाह के संविदात्मक स्वरूप को कानूनी रूप से वैध बनने के लिए इजाब-ओ-कबूल, अर्थात प्रस्ताव और स्वीकृति की आवश्यकता होती है। वैध अनुबंध की अनिवार्यताएं भी पूरी की जाएंगी। ऐसी शादी की घोषणा महिलाओं के लिए एक पूर्व शर्त है। ‘मैंने तुमसे विवाह किया है’ (अंकहतुका) या ‘मैं तुमसे विवाहित हूं’ (ज़व्वजतुका) शब्द आमतौर पर निकाहनामा या विवाह अनुबंध में उपयोग किए जाते हैं। समझौते में ऐसी कोई भी शर्त या नियम नहीं होने चाहिए जो मुस्लिम कानून के खिलाफ हों या अनुचित माने जाएं। इस तरह की शादी इस्लामी कानून के तहत अमान्य मानी जाएगी।
अनुबंध में किसी भी क्रम में घोषणा और स्वीकृति शामिल हो सकती है। यदि पुरुष कहता है, ‘मैंने तुमसे विवाह कर लिया है’ और महिला भी इस पर सहमत हो जाती है, तो अनुबंध वैध है। इसके अलावा, विवाह उनके प्रतिनिधियों और उनके पिता द्वारा भी संपन्न कराया जा सकता है। यदि पिता कहे कि मैं अपनी पुत्री तुम्हें देता हूं तो वह भी मान्य माना जाएगा। कानूनी विचार-विमर्श में यह भी कहा गया है कि अनुबंध करने वाला व्यक्ति ऐसे अनुबंध के योग्य होना चाहिए।
मुता विवाह के पक्षकार
इस्लाम के अनुसार, इस्लाम में आस्था न रखने वाला या पैगम्बर का दुश्मन मुता विवाह नहीं कर सकता। यह अनुबंध केवल शिया पुरुष और मुस्लिम, ईसाई, यहूदी या अग्निपूजक महिला के बीच ही हो सकता है। निम्नलिखित अपवादों का पालन किया जाना आवश्यक है: –
- एक मुस्लिम महिला किसी गैर-मुस्लिम पुरुष से विवाह नहीं कर सकती।
- यदि किसी व्यक्ति की स्थायी पत्नी है, तो वह अपनी पत्नी की अनुमति के बिना मुता विवाह नहीं कर सकता। यदि वह ऐसा करता है, तो ऐसी शादी तब तक अवैध मानी जाएगी जब तक कि पत्नी ऐसी व्यवस्था के लिए अपनी अनुमति नहीं दे देती।
- यदि महिला पहले से ही किसी अन्य व्यक्ति के साथ मुता विवाह में है, तो ऐसे पुरुष की अनुमति आवश्यक है। कई हदीसों में इस प्रथा का उल्लेख है।
- कोई भी व्यक्ति अपनी पत्नी की अनुमति के बिना अपनी साली या साले की बेटी से विवाह नहीं कर सकता।
इन अपवादों के अलावा, स्थायी विवाह में मौजूद अपवादों का भी पालन किया जाएगा। मुस्लिम पुरूष को यह भी सलाह दी जाती है कि वह अस्थायी विवाह केवल पवित्र महिला से ही करें, अर्थात वह महिला जो अपने सभी कार्यों में शरिया का पालन करती हो। सामान्य तौर पर, एक महिला जो ईमानदार और संयमी है। कुरान की एक आयत में यह भी कहा गया है कि एक आदमी व्यभिचारी से शादी नहीं कर सकता।
“व्यभिचारी किसी व्यभिचारिणी या मूर्तिपूजक के अतिरिक्त किसी और से विवाह न करे, और व्यभिचारिणी से कोई विवाह न करे, परन्तु व्यभिचारी या मूर्तिपूजक से करे; यह विश्वासियों के लिए निषिद्ध है” (24:3)।
मुता विवाह की समयावधि
ऐसे निश्चित अवधि के विवाह की समयावधि पूर्व निर्धारित होगी। अनुबंध की अवधि में कोई वृद्धि या कमी नहीं की जा सकती। इमाम अल रिदा के अनुसार, मुता एक निर्धारित अवधि के लिए निर्धारित की गई चीज़ है। ऐसी अवधि का अभाव समझौते को शून्य कर देगा, और मेहर का अभाव समझौते को अवैध कर देगा। इसके अलावा, अनुबंध में कुछ यौन कृत्यों का भी उल्लेख हो सकता है। यदि अनुबंध में कई यौन क्रियाएं शामिल हैं जिन्हें निश्चित अवधि के भीतर पूरा किया जाना है, तो ऐसी क्रियाएं पूरी होने पर महिला स्वतंत्र हो जाएगी। समयावधि महिला को व्यवस्था में बने रहने के लिए बाध्य नहीं कर सकती, यह निषिद्ध है। यह सामान्य अनुबंधों के समान है। जब अनुबंध का उद्देश्य पूरा हो जाता है, तो अनुबंध संपन्न हो जाता है। मुता विवाह के मामले में भी यही स्थिति है।
यदि निर्दिष्ट यौन क्रिया पूरी हो जाती है तो महिला पुरुष के प्रति किसी भी दायित्व से मुक्त हो जाएगी। हालाँकि, यदि निर्धारित समय अवधि समाप्त हो जाती है और यौन क्रियाएं अभी तक नहीं की गई हैं, तो अनुबंध समाप्त हो जाएगा। दोनों पक्षों की सहमति के बिना विवाह के समय निर्धारित समयावधि से अधिक समयावधि के लिए नहीं बढ़ाया जा सकता। यदि अवधि समाप्त होने के बाद भी सहवास जारी रहता है, तो यह अनुमान लगाया जाएगा कि विवाह स्थायी हो गया है।
यदि किसी कारणवश मुता विवाह अनुबंध में समयावधि निर्दिष्ट नहीं की गई है, तो यह विवाह स्थायी विवाह होगा। ऐसी परिस्थितियों में पत्नी भी पति की संपत्ति की उत्तराधिकारी हो सकती है। भारत में न्यायालयों ने भी यही कहा है। इसलिए, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि विवाह की शर्तें निर्दिष्ट हों।
मुता विवाह में मेहर
इस्लाम में, मेहर, जिसे मेहर के नाम से भी जाना जाता है, वह धन या संपत्ति है जो पति द्वारा विवाह से पहले, विवाह के दौरान या विवाह के बाद सम्मान और समर्थन दिखाने के लिए पत्नी को दिया जाता है। यह मुस्लिम विवाह का एक अनिवार्य हिस्सा है। डावर का उद्देश्य महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करना है।
मुता विवाह की एक बहुत ही महत्वपूर्ण शर्त है डावर। अनुबंध में ज्ञात संपत्ति के डावर का उल्लेख किया जाएगा, चाहे वह नकद हो या वस्तु के रूप में हो। मेहर के बारे में सुनिश्चित करने के लिए यह पर्याप्त है कि महिला उसे देख ले। मापना या तौलना अनिवार्य नहीं है। मेहर को न देखने से उत्पन्न होने वाली किसी भी प्रकार की भ्रांति को पहले ही महिला को दिखाकर दूर कर दिया जाएगा। महिला को मेहर के संबंध में कोई संदेह या शंका नहीं होनी चाहिए।
इस्लामी संस्कृति में मेहर विवाह का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है और मुता विवाह में इसका महत्व और भी अधिक है। हदीस में कहा गया है कि जो महिला मुता विवाह करती है, वह किराये पर ली जाती है। यदि डावर का उल्लेख नहीं किया गया है, तो अनुबंध अवैध हो जाएगा क्योंकि इसमें कोई प्रतिफल नहीं है। ऐसी बहुत सी हदीसें हैं जो इसकी पुष्टि करती हैं। महिला शादी से पहले पूरा मेहर मांग सकती है। पति किसी भी परिस्थिति में मेहर के किसी भी हिस्से का दावा नहीं कर सकता। वह केवल तभी इसका हकदार है जब विवाह शून्य घोषित कर दिया गया हो। मुता विवाह का अनुबंध केवल वस्तुओं का आदान-प्रदान नहीं बल्कि एक विवाह है। कभी-कभी इसे किराये के रूप में संदर्भित किया जाता है।
मुता अनुबंध में प्रवेश करने के बाद, यदि पति इसे जारी नहीं रखना चाहता है, तो वह शेष समय अवधि पत्नी को दे सकता है। इसे पति द्वारा पत्नी को दिया गया समय का उपहार माना जाता है। ऐसे मामलों में विवाह को समाप्त माना जाएगा। यदि विवाह पूर्णतः संपन्न हो चुका है तो महिला अभी भी पूर्ण मेहर का दावा कर सकती है। यदि नहीं, तो उसे मेहर का आधा हिस्सा पाने का अधिकार होगा। यह स्थायी विवाह से पहले तलाक लेने के समान है। सरल शब्दों में, यदि विवाह सम्पन्न नहीं हुआ है तो मेहर का आधा हिस्सा अवश्य देना होगा, लेकिन यदि विवाह सम्पन्न हो गया है तो पूरा मेहर देना होगा, भले ही पुरुष अनुबंध से बाहर निकलना चाहे।
विवाह की अस्थायी प्रकृति के कारण मेहर बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। महिला को अस्थायी विवाह के लिए अपना मेहर मिलेगा। चूंकि यह विवाह किराये का माना जाता है, इसलिए उस व्यक्ति से विवाह करने के पीछे यही कारण है।
यदि महिला शरिया द्वारा स्वीकृत कारणों, जैसे मासिक धर्म या अत्याचारी के डर से पुरुष को वैवाहिक अधिकार प्रदान करने में विफल रहती है, तो मेहर में कमी नहीं की जा सकती है। ऐसी अवधि के दौरान महिला की मृत्यु होने पर भी उसके मेहर में कोई कमी नहीं आती।
कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनमें महिला को मेहर वापस करना होगा। वे परिस्थितियाँ इस प्रकार हैं: –
- पत्नी का पहले से ही पति है, या उसे पारिवारिक रिश्तों के कारण किसी पुरुष से विवाह करने की मनाही है या यदि वह पिछले विवाह से प्रतीक्षा अवधि में है।
- जब विवाह सम्पन्न हो गया हो और महिला को इस बात का पता न हो कि संभोग के समय अनुबंध अवैध था, तो उसे निर्धारित मेहर दे दिया जाएगा।
- यदि किसी महिला को अनुबंध की अवैधता के बारे में पता था और फिर भी उसने विवाह संपन्न कर लिया, तो वह मेहर का दावा नहीं कर सकती, क्योंकि इस्लाम के तहत उसे व्यभिचारिणी माना जाता है और व्यभिचार के लिए कोई मेहर नहीं है।
मुता विवाह की कानूनी घटनाएं
- मुता विवाह से पुरुष और महिला के बीच उत्तराधिकार के पारस्परिक अधिकार उत्पन्न नहीं होते।
- इस व्यवस्था से पैदा हुए बच्चे वैध होते हैं और उन्हें माता-पिता दोनों से विरासत मिल सकती है।
- जब मुता में सहवास शुरू होता है, लेकिन मुता की अवधि के बारे में कोई सबूत नहीं है, तो यह अनुमान लगाया जाएगा कि मुता ऐसे सहवास की पूरी अवधि के दौरान जारी रहा। इस अवधि के दौरान गर्भित बच्चे वैध माने जाएंगे।
- जब अवधि समाप्त होने के बाद भी सहवास जारी रहता है, तो यह अनुमान लगाया जाएगा कि अवधि बढ़ा दी गई थी।
- जब अवधि समाप्त हो जाती है, तो मुता विवाह विघटित हो जाता है, जब तक कि पक्षकारों द्वारा इसे आगे न बढ़ाया जाए।
- मुता विवाह में तलाक का कोई अधिकार नहीं है।
- मेहर मुता विवाह की एक आवश्यक शर्त है।
- मुता विवाह की पत्नी भरण-पोषण पाने की पात्र नहीं है।
मुता विवाह में उल्लंघन के परिणाम
मुता विवाह के वैध समझौते के उल्लंघन से पत्नी को कुछ अतिरिक्त अधिकार प्राप्त होंगे, जो उसे ऐसे विवाह के सामान्य क्रम में प्राप्त नहीं होंगे। अवैध समझौते के मामले में, पक्षों के वैवाहिक अधिकारों और कर्तव्यों पर कोई अधिकार या प्रभाव नहीं होगा क्योंकि अदालत ऐसे अवैध अनुबंध में हस्तक्षेप नहीं करेगी। किसी अनुबंध के उल्लंघन के मामले में परिणाम हो सकता है: –
- पत्नी को अलग रहने की अनुमति होगी तथा पति को वैवाहिक अधिकार नहीं दिए जाएंगे।
- चरम स्थितियों में पत्नी को तलाक का अधिकार मिल सकता है।
- दहेज का अधिकार उत्पन्न हो सकता है
- विवाह तुरन्त विघटित हो सकता है।
चूंकि इस्लाम में विवाह एक अनुबंध है, इसलिए यदि इसमें कोई गैरकानूनी चीज जोड़ दी जाए तो विवाह निरस्त या अमान्य हो सकता है। वैध विवाह में पति को अपनी पत्नी की गतिविधियों पर रोक लगाने का अधिकार है, लेकिन यह शक्ति अनुबंध के अधीन है जो प्रकृति में विपरीत है। एक विवाह अनुबंध दोनों पक्षों द्वारा सहमति से तय किये गए कई अधिकार और कर्तव्य प्रदान कर सकता है।
मुता विवाह से संबंधित अवधारणाएँ
चूंकि इस्लामी परंपराएं और प्रथाएं संहिताबद्ध नहीं हैं, इसलिए विवाह और अन्य संबंधों को नियंत्रित करने के लिए केवल पवित्र पुस्तकों, हदीसों और अन्य प्राचीन ग्रंथों का ही उपयोग किया जाता है। मुता विवाह पर उपलब्ध ग्रंथों और इतिहास के अनुसार, निम्नलिखित अवधारणाएं ऐसे विवाहों को नियंत्रित करती हैं।
मुता विवाह अनुबंध में निम्नलिखित शर्तें शामिल हो सकती हैं: –
- पति-पत्नी के बीच मुलाकात के लिए निर्दिष्ट समय अवधि।
- यौन क्रियाओं की एक निर्दिष्ट संख्या तथा एक निश्चित समयावधि में किस प्रकार की यौन क्रियाएं।
- विवाह संपन्न न होने से अन्य कर्तव्यों और दायित्वों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
कोइटस इंटरप्टस (संभोग में रुकावट)
कोइटस इंटरप्टस एक परिवार नियोजन विधि है, जिसमें गर्भधारण को रोकने के लिए पुरुष को स्खलन से पहले लिंग को बाहर निकाल लेना होता है। मुता विवाह के मामलों में, कोइटस इंटरप्टस करना आवश्यक है, भले ही इसका विशिष्ट शर्त के रूप में उल्लेख नहीं किया गया हो। यदि सावधानी नहीं बरती गई और पत्नी विवाह के दौरान गर्भवती हो गई, तो बच्चा पति का होगा, भले ही वह दावा करे कि उसने कोइटस इंटरप्टस किया था। कई हदीसों में यह भी उल्लेख है कि पुरुष अपने वीर्य को अपनी इच्छानुसार खर्च कर सकता है। लेकिन मुता विवाह का उद्देश्य आनंद लेना और संतानोत्पत्ति से बचना है। हालाँकि, यदि ऐसी व्यवस्था से कोई बच्चा पैदा होता है, तो वह बच्चा वैध माना जाएगा। हालाँकि, पति अभी भी पितृत्व से इनकार कर सकता है।
एक पुरुष को मुता विवाह से पैदा हुए बच्चे को अस्वीकार करने का अधिकार है। इसमें स्थायी विवाह की तरह शपथ पत्र देने की आवश्यकता नहीं होती। ऐसा माना जाता है कि मुता का बिस्तर एक दासी के बिस्तर के समान होता है तथा इसे स्थायी रूप से विवाहित पत्नी के बिस्तर जितना ऊंचा नहीं माना जाता है। इस्लाम में मनुष्य और ईश्वर के बीच स्थापित कानून को बहुत पवित्र और महत्वपूर्ण माना जाता है, तथापि दोनों के पद और मूल्य अलग-अलग हैं। आदमी को अपने बच्चे को अस्वीकार नहीं करना चाहिए।
मुता विवाह में तलाक
उलेमा के अनुसार मुता विवाह में तलाक नहीं हो सकता। मुता विवाह एक निश्चित अवधि के लिए होता है। यह अवधि विवाह की शुरुआत में ही तय कर दी जाती है। इसलिए, मुता विवाह समय अवधि की समाप्ति के बाद संपन्न होता है। इसका निष्कर्ष तब भी निकाला जा सकता है जब पुरुष अपनी इच्छा से शेष समय स्त्री को लौटा दे।
मुता विवाह में शपथपूर्वक आरोप
इस्लाम के तहत शपथपूर्वक आरोप मुता विवाह का हिस्सा नहीं हैं। हदीसों में कहा गया है कि एक स्वतंत्र व्यक्ति किसी गुलाम लड़की, गैर-मुस्लिम या मुता पत्नी के खिलाफ शपथपूर्वक आरोप नहीं लगाता है। माता-पिता होने से इनकार करने के मामले में, पुरुष के लिए शपथ पत्र पर आरोप लगाना अनावश्यक है।
मुता विवाह में शपथ त्यागना
इस्लाम में त्याग का अर्थ तलाक से है। इसलिए, मुता विवाह में इसका कोई महत्व नहीं है। मुता विवाह में कोई भी महिला यौन संबंध बनाने के अधिकार की मांग नहीं कर सकती। वह केवल मेहर की हकदार है और इसकी मांग कर सकती है, क्योंकि मुता विवाह में उसे किराए की महिला माना जाता है।
मुता विवाह में जिहार
इस्लामी कानून में ज़िहार को अपमान माना जाता है। इसका अर्थ है कि जो पुरुष अपनी पत्नी को अपनी मां के समान घोषित करता है, ऐसा पुरुष पाप करने का दोषी होता है। इस बात पर कोई स्पष्ट स्थिति नहीं है कि अस्थायी विवाह में जिहार हो सकता है या नहीं। कुरान की घोषणाएं सामान्य प्रकृति की हैं और अर्थ को सीमित नहीं करतीं। कुरान की आयत बताती है कि ज़िहार किसी भी महिला के साथ हो सकता है जिसके साथ पुरुष वैध संभोग कर रहा हो। लेकिन, कुछ अन्य विचारधाराओं का कहना है कि मुता विवाह में ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि अंततः आप अपनी पत्नी को छोड़ रहे होते हैं।
तुममें से जो लोग अपनी स्त्रियों के विषय में कहते हैं कि ‘मेरी माँ की पीठ की तरह बनो’, वे वास्तव में उनकी माँ नहीं हैं’ (58:2)
मुता विवाह में उत्तराधिकार
मुता विवाह में पति और पत्नी के बीच उत्तराधिकार का कोई अधिकार नहीं होता है, जब तक कि यह स्पष्ट रूप से विवाह अनुबंध में शामिल न हो। पति या पत्नी में से किसी एक को दूसरे का उत्तराधिकारी नामित किया जा सकता है। यदि ऐसी शर्तें निर्धारित नहीं की गई हैं तो मुता विवाह में कोई उत्तराधिकार नहीं मिलेगा।
इमाम जाफ़र कहते हैं कि मुता क़ानूनों में से, न तो तुम औरत से उत्तराधिकार पाते हो और न ही वह तुमसे उत्तराधिकार पाती है। एक शर्त के रूप में विरासत केवल पैगम्बर की हदीसों की सार्वभौमिक प्रयोज्यता के कारण ही अनुमेय है, तथा विश्वासी अपनी शर्तों पर अडिग रहते हैं।
यदि वे मुता विवाह के अनुबंध में ऐसी शर्त निर्धारित करते हैं, तो उन्हें इसका पालन करना होगा। ऐसे विवाह से पैदा हुए बच्चे को पिता की संपत्ति पर उत्तराधिकार का अधिकार होगा। लेकिन, बच्चे को स्थायी विवाह से पैदा हुए बच्चे का आधा हिस्सा मिलेगा। हालाँकि, माँ से उत्तराधिकार के अधिकार स्थायी विवाह के समान ही होंगे।
कुछ उलेमा अलग रुख रखते हैं और कहते हैं कि मुता विवाह अनुबंध में उत्तराधिकार की कोई शर्त नहीं जोड़ी जा सकती है।
मुता विवाह में प्रतीक्षा अवधि
इस्लाम में, दूसरी शादी करने से पहले महिला को एक निश्चित अवधि तक इंतजार करना पड़ता है। यह स्थायी एवं मुता विवाह दोनों पर लागू है। प्रतीक्षा अवधि में महिला के लिए तीन मासिक धर्म चक्र शामिल होंगे, जिसका सीधा सा अर्थ यह है कि किसी अन्य व्यक्ति से विवाह करने से पहले उसे तीन मासिक धर्म चक्र अवश्य आने चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए अनिवार्य किया गया है कि महिला अपने पूर्व पति की संतान को जन्म नहीं दे रही है। यदि वह गर्भवती है, तो उसे दोबारा शादी करने के लिए बच्चे के जन्म तक इंतजार करना होगा। इस प्रथा का आधार दो हदीसों में मिलता है, जो कहती हैं कि “किसी दास को तलाक देने के लिए, तलाक का सूत्र तीन बार बोलना चाहिए, उसकी प्रतीक्षा अवधि तीन मासिक धर्म है”
कुरान के अनुसार, यदि पति की मृत्यु हो जाए तो पत्नी को चार महीने और दस दिन तक इंतजार करना पड़ता है। यह समयावधि इस बात पर निर्भर नहीं करेगी कि वह स्वतंत्र महिला है या दासी, या विवाह अस्थायी था या स्थायी।
तलाकशुदा महिला के लिए प्रतीक्षा अवधि तीन महीने है, और दासी महिला के लिए यह तीन महीने का आधा है। यदि पत्नी दासी हो तो उसकी प्रतीक्षा अवधि दो महीने और पांच दिन होगी। जब महिला उसी पुरुष से दोबारा विवाह करती है तो उसके लिए कोई प्रतीक्षा अवधि नहीं होती।
ऐसे मामलों में जहां महिला की आयु रजस्वला (मेंस्ट्रुएटिंग) है, लेकिन किसी कारणवश उसे रजस्वला नहीं होता है, तो प्रतीक्षा अवधि 45 दिनों की होगी। मुता के लिए प्रतीक्षा अवधि स्थायी विवाह की अवधि से कमजोर है, क्योंकि मुता विवाह को भी स्थायी विवाह की तुलना में कमजोर माना जाता है।
मुता विवाह अनुबंध का नवीकरण
मुता विवाह समझौते को विवाह के आरंभ में निर्धारित समयावधि समाप्त होने से पहले नवीनीकृत नहीं किया जा सकता। यदि पक्षकार अवधि को नवीनीकृत करना चाहते हैं, तो पति शेष अवधि महिला को वापस कर सकता है, जिसका अर्थ है मुता विवाह में तलाक। ऐसे मामलों में, वे अनुबंध समाप्त कर सकते हैं और नई समयावधि के साथ नया अनुबंध शुरू कर सकते हैं। जब पत्नी उसी पुरुष से दोबारा विवाह करती है तो कोई प्रतीक्षा अवधि नहीं होती। इस पद्धति को इमाम जाफ़र से संबंधित हदीस द्वारा स्थापित किया गया है।
मुता विवाह का पंजीकरण
भारत में मुता विवाह को मान्यता नहीं दी गई है। सुन्नी कानून के तहत भी यह अमान्य है। शिया मुसलमानों के कुछ संप्रदाय इस परंपरा का पालन करते हैं लेकिन ऐसा कोई कानून नहीं है जो मुता विवाह के पंजीकरण के बारे में बात करता हो। मुता विवाह पक्षों के बीच किया गया एक संविदात्मक समझौता है। इसे स्थायी विवाह की तरह ही निष्पादित किया जा सकता है। अनुबंध में पक्षों का विवरण शामिल होगा जैसे नाम, पता, पक्षों के हस्ताक्षर, पक्षों के अभिभावक/ माता-पिता का नाम, गवाहों का नाम, पुजारी का नाम, महिला को दिए जाने वाले मेहर के बारे में विवरण, भुगतान का तरीका, मुता विवाह और समय अवधि के बारे में स्पष्ट खंड।
उपर्युक्त सभी विवरण विवाह विलेख में होंगे, जिसे ‘निकाहनामा’ भी कहा जाता है। ऐसा दस्तावेज़ तब न्यायालय में कानूनी रूप से लागू हो जाएगा। अनुबंध करते समय, अनुबंध की अनिवार्यताओं को ध्यान में रखा जाएगा और उनका सटीक रूप से पालन किया जाएगा।
क्या मुता विवाह को समाप्त किया जा सकता है?
कुछ असाधारण परिस्थितियों में मुता विवाह को निर्धारित समयावधि की समाप्ति से पहले भी समाप्त किया जा सकता है। सामान्यतः इसे निर्धारित समयावधि समाप्त होने से पहले समाप्त नहीं किया जा सकता। हालाँकि, पति शेष अवधि पत्नी को वापस कर सकता है और अवधि समाप्त होने से पहले ही इसे अनुबंध की समाप्ति माना जाएगा।
मुता विवाह अनुबंध निम्नलिखित परिस्थितियों में समाप्त हो जाएगा: –
- निर्धारित समय अवधि की समाप्ति।
- किसी भी पक्ष की मृत्यु होने पर।
- पति शेष समयावधि पत्नी को उपहार के रूप में देता है।
ऐसा माना जाता है कि मुता विवाह इस्लाम के दर्शन को पूरा करने के लिए विकसित किया गया था। इस्लाम धर्म का समर्थन करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार विवाह करना चाहिए। इसलिए, यदि कोई मुस्लिम व्यक्ति युद्ध करने जा रहा है, तो वह इस दर्शन को पूरा करने के लिए सिर्फ एक दिन या सप्ताह के लिए भी मुता विवाह कर सकता है।
मुता विवाह के लाभ
मुता विवाह के बहुत से संभावित लाभ हैं। उनमें से कुछ हैं: –
- अस्थायी विवाह पुरुष और महिला को यह पता लगाने का अवसर देता है कि वे क्या चाहते हैं, तथा वह बिना किसी प्रतिबद्धता के संबंध समाप्त कर सकते हैं।
- यह लोगों को विभिन्न यौन साझेदारों की खोज करने का एक तरीका प्रदान करता है।
- यह लोगों को अपने अनुकूल साथी की पहचान करने और फिर स्थायी रूप से विवाह करने के कई अवसर प्रदान करता है।
- यह लोगों को भावनात्मक और सामाजिक रूप से स्वीकार्य तरीके से अपनी यौन आवश्यकताओं को पूरा करने की अनुमति देता है।
मुता विवाह के जोखिम
मुता विवाह में बहुत सारे जोखिम शामिल हैं। उनमें से कुछ हैं: –
- कुछ मामलों में, पुरुष महिलाओं का शोषण और दुर्व्यवहार करते हैं।
- इससे यौन संचारित रोग फैलने का खतरा बढ़ जाता है।
- विवाह की यह व्यवस्था महिलाओं में मनोवैज्ञानिक समस्याएं पैदा करती है।
- महिलाओं को समान अधिकार नहीं मिलते है।
मुता पर भारतीय न्यायशास्त्र और उससे संबंधित कानूनी मामले
भारत में मुता विवाह की प्रथा बहुत प्रचलित नहीं है। सुन्नी मुसलमानों या उच्च समाज की महिलाओं के प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में इस प्रकार का विवाह प्रचलित नहीं है। मुता विवाह की तरह, पत्नी को किराए की महिला माना जाता है। यह अवधारणा समाज के लिए और महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए उपयोगी नहीं है। इस प्रकार की व्यवस्था के कारण पुरुष महिलाओं को वस्तु समझते हैं तथा उनका अनादर करते हैं। हालाँकि, शिया मुस्लिम पुरुषों के कुछ संप्रदाय भी इसका पालन करते हैं। हैदराबाद को मुता विवाह का केन्द्र माना जाता है।
भारतीय कानून मुता जैसे अस्थायी विवाह को मान्यता नहीं देता। ऐसे कई उदाहरण हैं जहां लोगों ने मुता विवाह अनुबंधों पर स्पष्टता के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटाया है। आइये भारत में माननीय न्यायालय के कुछ निर्णयों को पढ़कर वर्तमान कानूनी स्थिति को समझें: –
- सैयद अमनउल्लाह हसन और अन्य बनाम राजमानंद और अन्य (1976) – इस मामले में, एक शिया पुरुष हबीबुल्ला ने राजम्मा के साथ मुता विवाह किया। यह विवाह 1967 में पति की मृत्यु तक चला। उनकी मृत्यु के बाद, राजम्मा को उनकी सारी संपत्ति विरासत में मिली। हबीबुल्ला के भाई ने इस उत्तराधिकार को चुनौती दी क्योंकि यह विवाह मुता विवाह था और ऐसे विवाहों में पत्नी को उत्तराधिकार का कोई अधिकार नहीं होता। सावधानीपूर्वक विचार और व्याख्या के बाद, अदालत ने माना कि मुता विवाह की अवधि उनके अनुबंध में निर्दिष्ट नहीं थी। यदि अवधि निर्दिष्ट नहीं की गई है, तो इसे सामान्य स्थायी विवाह माना जाएगा। मुता विवाह की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता इसकी निश्चित अवधि है, इसलिए यदि अनुबंध में अवधि का उल्लेख नहीं किया गया है, तो इसे मुता विवाह नहीं माना जाएगा।
इसलिए, इस विवाह को स्थायी विवाह माना गया और पत्नी को अपने पति की संपत्तियों पर उत्तराधिकार का अधिकार प्राप्त हुआ। भाई का दावा अदालत द्वारा स्वीकार नहीं किया गया।
- शोहरत सिंह बनाम मुस्सामत जाफरी बीवी (1914) – इस मामले में, अदालत ने मुता विवाह के अर्थ और मुसलमानों के बीच इसके महत्व पर विस्तार से चर्चा की थी। इसमें कहा गया कि इस्लामी कानून के अनुसार, शिया संप्रदाय के मुसलमान मुता विवाह का पालन करते हैं। यह एक निश्चित अवधि के लिए अस्थायी विवाह है। इस प्रकार के विवाह में महिला को पति की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं मिलता। डावर ऐसे विवाहों का एक प्रमुख घटक है।
विवाह से उत्पन्न बच्चे वैध माने जाते हैं तथा अपने पिता से उत्तराधिकार प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। निकाह एक धार्मिक समारोह है, चाहे वह स्थायी हो या अस्थायी, और इस प्रकार यह महिला को पूर्णतः पत्नी का दर्जा प्रदान करता है।
- मोहम्मद आविद अली कुमार कदर बनाम लुडडेन साहिबा (माइनर) 1886 – यह माना गया कि पति और पत्नी को तलाक का अधिकार नहीं है। लेकिन यदि पति पत्नी को समय लौटा दे तो विवाह समाप्त हो सकता है। महिला भी अनुबंध को समाप्त कर सकती है, लेकिन उस स्थिति में पति उसके मेहर से कुछ हिस्सा कम कर सकता है।
यदि अनुबंध की समाप्ति के बाद भी पक्षकार एक साथ रहना जारी रखते हैं, तो यह माना जाता है कि अनुबंध बढ़ा दिया गया है।
- बच्चू बनाम बिस्मिल्लाह – इस मामले में पति ने पत्नी को एक निश्चित अवधि तक एक निश्चित राशि का भरण-पोषण देने पर सहमति व्यक्त की थी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसा न करना तलाक का आधार माना जा सकता है और अनुबंध ही तलाकनामा होगा। चूंकि पति अपना कर्तव्य निभाने में असफल रहा, इसलिए पत्नी को तलाक का अधिकार प्राप्त हो गया। चूक (डिफ़ॉल्ट) के कारण, तलाक बिना किसी उच्चारण के प्रभावी हो गया।
- शहजादा कानूम बनाम फाखेर जहान, 1953 – इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनिर्दिष्ट समयावधि वाले मुता विवाह और स्थायी निकाह विवाह में कोई अंतर नहीं है। यदि कोई अवधि निर्दिष्ट नहीं की गई है तो मुता विवाह को स्थायी विवाह माना जाएगा। मुता विवाह को अस्थायी विवाह माना जाने के लिए विवाह के लिए एक निश्चित समय अवधि निर्दिष्ट करना आवश्यक है। अन्यथा, यह किसी भी अन्य विवाह की तरह ही है।
- लुड्डुन बनाम मिर्जा कुमार (1882) – इस मामले में याचिकाकर्ता ने पत्नी के रूप में अपने लिए भरण-पोषण का आदेश प्राप्त करने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 536 के तहत आवेदन दायर किया। वह मुता विवाह में थी। विवाह में दोनों पक्ष शिया थे। उन्होंने आरोप लगाया कि यह अवधि 50 वर्ष थी, जबकि उनके पति ने आरोप लगाया कि यह अवधि केवल डेढ़ महीने की थी।
मजिस्ट्रेट ने कहा कि शिया कानून के अनुसार मुता विवाह की पत्नी को भरण-पोषण मांगने का कोई अधिकार नहीं है। हालाँकि, इससे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 536 के तहत भरण-पोषण का वैधानिक अधिकार समाप्त नहीं होता है। भरण-पोषण का अधिकार, जो लागू किये जाने योग्य व्यक्तिगत कानून पर निर्भर करता है, सिविल मुकदमे का विषय बनता है। इसलिए, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने माना कि पत्नी दंड प्रक्रिया संहिता के तहत भरण-पोषण का दावा करने के लिए योग्य थी।
- सादिक हुसैन बनाम हासिम अली (1916) – इस मामले में, माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना कि मुता विवाह से पैदा हुए बच्चों को माता-पिता दोनों की संपत्तियों पर उत्तराधिकार का अधिकार है, और उन्हें वैध माना जाएगा।
- अकबर हुसैन साहिब बनाम शौक बेगम साहिबा (1915) – इस मामले में, यह चर्चा की गई कि मुस्लिम कानून में विवाह का सबसे निम्न रूप मुता विवाह माना जाता है। कुछ लोग इसे विवाह का निम्न रूप मानते हैं, इसलिए इसे उपपत्नी विवाह से अलग नहीं किया जा सकता। मुता विवाह के लिए दो शर्तें हैं – एक विशिष्ट समय अवधि होनी चाहिए, और पत्नी के लिए एक निश्चित राशि होनी चाहिए।
- हसन अली मिर्जा बनाम नुशरत अली मिर्जा (1934) – इस मामले में कहा गया कि मुता विवाह की अवधि समय-समय पर समाप्त होने पर बढ़ाई जा सकती है। यदि पक्षकार विवाह जारी रखने के इच्छुक हैं, तो वे मुता विवाह फॉर्म के माध्यम से ऐसा कर सकते हैं।
ब्रिटेन में मुता की प्रथा
ब्रिटेन में मुसलमानों में अस्थायी विवाह का चलन बढ़ रहा है। मुता विवाह, जो इस्लाम के अंतर्गत एक प्राचीन प्रथा है, विवाह का एक अस्थायी रूप है। ब्रिटेन में इसे निकाह अल मुता के नाम से जाना जाता है। निकाह अल मुता एक मौखिक या लिखित अनुबंध होता है जिसमें दोनों पक्ष सहमति से शामिल होते हैं। इस प्रकार का मिलन कुछ घंटों या कुछ वर्षों तक चल सकता है। इसकी कोई समय सीमा नहीं है। ऐसी शादियों से उत्पन्न पत्नियों को इस्लाम में अनुमत चार पत्नियों में नहीं गिना जा सकता।
पिछले कुछ वर्षों में यह प्रथा ग्रेट ब्रिटेन में पुनर्जीवित हो गयी है। यह इंग्लैंड और वेल्स में मुसलमानों की नई पीढ़ी के बीच सबसे लोकप्रिय है। इसकी प्रकृति और व्यापकता के कारण देश के कुछ हिस्सों में इसे ‘वाइफ स्वैपिंग’ के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रथा की लोकप्रियता दर्शाती है कि ब्रिटेन में मुसलमान विभिन्न प्रकार के विवाह स्थापित करने के लिए इस्लामी शरिया कानून का उपयोग कर रहे हैं, जो अन्यथा अवैध है। कुछ विचारधाराओं का मानना है कि अस्थायी विवाह धार्मिक रूप से स्वीकृत वेश्यावृत्ति के समान है, जिससे पुरुषों को अपने आचरण के बारे में अच्छा महसूस होता है तथा उन्हें लगता है कि वे कोई पाप नहीं कर रहे हैं।
मुता विवाह, जिसे आनंद विवाह के नाम से भी जाना जाता है, की स्थापना स्वयं मुस्लिम पैगम्बर मोहम्मद ने की थी। अस्थायी विवाहों की अनौपचारिक प्रकृति के कारण, यह बताने के लिए कोई आधिकारिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं कि ब्रिटेन में ऐसे कितने विवाह हुए हैं। लेकिन एक वृत्तचित्र में यह खुलासा किया गया कि यह मुसलमानों की युवा पीढ़ी के बीच व्यापक और विशेष रूप से लोकप्रिय है।
हालाँकि, निकाह अल मुता का पालन शिया मुसलमानों द्वारा किया जाता है और सुन्नी मुसलमानों द्वारा इसे अमान्य माना जाता है। सुन्नी मुसलमान विवाह का अधिक उदार रूप अपनाते हैं, जिसे निकाह-अल-मिस्यार कहा जाता है, जिसका अर्थ है यात्री विवाह। मिस्यार विवाह कोई सामान्य विवाह नहीं है। इस प्रकार की व्यवस्था में पति और पत्नी केवल वैवाहिक दायित्वों को निभाने के लिए मिलते हैं। ऐसे मामलों में पुरुष आमतौर पर विवाहित होता है और वह दूसरी पत्नी रखने में सक्षम नहीं होता। मिस्यार और मुता विवाह का एकमात्र उद्देश्य यौन संतुष्टि और आनंद है। इस्लाम के अंतर्गत अन्य प्रथाओं की तरह इस प्रकार की व्यवस्था भी पुरुषों के पक्ष में है।
ईरान में मुता प्रथा
ईरान में मुता के रूप में अस्थायी विवाह बहुत प्रचलित और व्यापक है। यह एक पुरुष और एक महिला के बीच एक अनुबंध है जो एक निश्चित अवधि तक चलता है। समय अवधि एक घंटे से लेकर निन्यानबे वर्ष तक भिन्न हो सकती है। यह प्रथा मुख्यतः ईरान और इराक के शियाओं के बीच प्रचलित है। इस प्रकार की व्यवस्था एकल पुरुषों, महिलाओं या किशोरों को वैध और स्वीकार्य तरीके से यौन संबंध बनाने की अनुमति देती है। ईरानी कानून के तहत, अगर लड़के-लड़कियां कहीं भी सार्वजनिक स्थान पर, यहां तक कि एक-दूसरे का हाथ थामे हुए भी पाए जाते हैं, तो उन्हें दंडित किया जा सकता है, गिरफ्तार किया जा सकता है या जुर्माना लगाया जा सकता है। इन समस्याओं से बचने के लिए अस्थायी विवाह को समाधान के रूप में अपनाया जाता है।
ऐसी व्यवस्था को विवाह से पहले यौन संबंधों पर अंकुश लगाने का एक साधन माना जाता है, जिसे अस्वीकार्य माना जाता है। यह पुरुषों को स्थायी पत्नी के साथ-साथ अन्य अस्थायी पत्नियां रखने की भी अनुमति देता है, यदि वे अधिक स्थायी पत्नियां रखने का खर्च नहीं उठा सकते। मुता विवाह से उत्पन्न पत्नी को भरण-पोषण या उत्तराधिकार पर कोई अधिकार नहीं होता। हालाँकि, शिक्षित परिवारों द्वारा इस प्रकार के विवाह को हतोत्साहित किया जाता है।
मुता विवाह का प्रचलन दुनिया भर में शिया मुसलमानों के इत्ना अंसारी स्कूल के अनुयायियों द्वारा किया जाता है। कुछ विश्वासियों द्वारा इसे वेश्यावृत्ति का एक रूप भी माना जाता है, क्योंकि इस व्यवस्था में महिलाओं के पास कोई अधिकार नहीं होते हैं तथा पुरुषों के साथ यौन संबंध बनाने के लिए उन्हें पैसे मिलते हैं। इस प्रकार का गठबंधन केवल पुरुषों के पक्ष में है। दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व में दुःख और पीड़ा के निशान देखे जा सकते हैं। युवा लड़कियों को धोखे से मुता विवाह में फंसाया जाता है, उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है और उन्हें घर से निकाल दिया जाता है। मुता जैसे अस्थायी विवाह केवल पुरुषों की यौन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होते हैं।
मुता विवाह से यह बात भी फैल गई कि महिला अब कुंवारी नहीं रही और वह परिवार के लिए शर्म का धब्बा है। इस तरह से महिलाओं का अपमान किया जाता है और समाज में उन्हें एक वस्तु की तरह इस्तेमाल किया जाता है। इस व्यवस्था को केंद्रीय कानून द्वारा अवैध घोषित किया जाएगा। समाज की बेहतरी और महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए एक कदम आगे बढ़कर इस प्रकार के विवाहों को हतोत्साहित करना महत्वपूर्ण है। अंततः ऐसी स्थिति में सबसे अधिक कष्ट महिलाओं को ही उठाना पड़ता है।
इसके साथ ही दूसरा सबसे महत्वपूर्ण बिंदु स्वास्थ्य है। एक से अधिक साथियों के साथ यौन संबंध बनाने से कई यौन संचारित रोग हो सकते हैं। बदलते जीवन साथी के कारण बीमारियाँ तेजी से फैल सकती हैं। मुस्लिम धर्मगुरु कभी-कभी अपने दुश्मनों को दंडित करने के लिए अपने पुरुषों को 14 और 15 वर्ष की किशोर लड़कियों के साथ सुखद विवाह करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। युवा लड़कियों के शोषण के ऐसे तरीकों को अवैध घोषित किया जाना चाहिए। यौन शोषण के उद्देश्य से महिलाओं और लड़कियों की अक्सर दुनिया के विभिन्न हिस्सों में तस्करी की जाती है।
हालाँकि, ऐसी व्यवस्था में शामिल होने वाले पुरुष और महिलाएं इसके परिणामों और उद्देश्य से पूरी तरह अवगत होते हैं। यह उनकी पसंद है। इस्लाम में मुताह विवाह के बारे में अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय है। आज के युग में, जब महिला सशक्तिकरण एक गरमागरम बहस का विषय है, ऐसी प्रथाओं के साथ हम आगे बढ़ने के बजाय पीछे जा रहे हैं।
कुछ प्रथाएं प्राचीन हो सकती हैं और धार्मिक कर्तव्य मानी जाती हैं, लेकिन वे स्वभाव से ही भयानक हैं। यह जरूरी नहीं है कि हर चीज का पालन किया जाए। तीन तलाक, बाल विवाह और सती प्रथा जैसी कुछ प्रथाओं को तब समाप्त कर दिया गया और अवैध बना दिया गया जब यह महसूस किया गया कि वे समाज और महिलाओं की प्रगति के खिलाफ हैं। इसी प्रकार, मुता विवाह की प्रथा पर भी पुनर्विचार किया जाना चाहिए। यह पुरुषों द्वारा महिलाओं का यौन शोषण करने का एक तरीका है तथा वे इसे वैध और स्वीकार्य मानते हैं। इसके अनेक लाभ होने के बावजूद इसके नुकसान अधिक गंभीर हैं। अंततः यह लोगों पर निर्भर है कि वे इसका पालन करें या नहीं।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
भारत में मुता विवाह वैध है या नहीं.
भारत में, मुता विवाह को विशेष विवाह अधिनियम, 1954 या किसी अन्य कानून के तहत मान्यता नहीं दी गई है। हालाँकि, इस्लाम में विवाहों की संविदात्मक प्रकृति के कारण, मुता विवाह भी न्यायालय में लागू किये जा सकते हैं। इस्लाम के अंतर्गत ऐसी कई प्रथाएं हैं जिनकी भारत के अन्य धर्मों में अनुमति नहीं है और इसलिए उन्हें कानून में शामिल नहीं किया गया है। मुता विवाह अनुबंध प्रवर्तनीय है और उच्च न्यायालयों तथा उच्चतम न्यायालय के कई निर्णय हैं, जिनमें उन्होंने मुता विवाहों से उत्पन्न विवादों पर निर्णय दिया है।
क्या मुता विवाह भारत के बाहर भी प्रचलित है?
मुताह विवाह विश्व के विभिन्न भागों में पाई जाने वाली एक बहुत ही सामान्य प्रथा है। विशेषकर ईरान, इराक और अन्य अरब देशों में। ब्रिटेन में भी मुता विवाह का प्रचलन है। मुसलमानों की युवा पीढ़ी इस तरह की व्यवस्था का खूब पालन कर रही है।
- https://scroll.in/article/874702/what-is-muta-marriage-and-why-it-may-be-difficult-for-the-supreme-court-to-invalidate-it
- https://www.britannica.com/topic/mutah
- https://www.ijlmh.com/wp-content/uploads/2019/03/Muta-Marriage.pdf
- https://www.jstor.org/stable/43953629
- https://www.al-islam.org/muta-temporary-marriage-islamic-law-sachiko-murata/four-pillars-muta
- https://www.al-islam.org/muta-temporary-marriage-islamic-law-sachiko-murata/four-pillars-muta#quran_ref_143645
- https://www.al-islam.org/muta-temporary-marriage-islamic-law-sachiko-murata/statutes-muta
- https://dejurenexus.com/wp-content/uploads/2021/09/Analysis-of-Muta-Marriage-under-Mulsim-Law-By-Bhavya-Vijaya-Lakshmi.pdf
- https://www.gatestoneinstitute.org/3748/uk-islamic-temporary-marriages
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अनुबंध करने की क्षमता, अनुराग सोनी बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2019), संवैधानिक उपचार का अधिकार, कोई जवाब दें जवाब कैंसिल करें.
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भारत में मुस्लिम विवाह कानून: औपचारिकताएं, बहुविवाह, तलाक व पुनर्विवाह
मुस्लिम विवाह कानून अन्य धर्मों के विवाह के क़ानूनों से काफी भिन्न है। यह लेख उन सभी शादियों के क़ानूनों के बारे में बताएगा , जिनके बारे में भारत के हर एक मुसलमान को जानकारी होनी चाहिए। इस्लाम में शादी या निकाह एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है (जैसा कि हिंदू धर्म में है) , लेकिन पति और पत्नी के रूप में रहने के लिए एक पुरुष और महिला के बीच एक नागरिक संविदा होना आवश्यक है। धार्मिक दृष्टिकोण से मुस्लिम विवाह भी एक मज़हबी अधिनियम है , अर्थात् इबादत। पैगंबर ने कहा है कि शादी हर शारीरिक रूप से फिट मुस्लिम के लिए अनिवार्य (वाजीब) है , यह विवाह जेहाद (पवित्र युद्ध) के बराबर है,जो शादी करता है वह अपना आधा धर्म पूरा करता है , जबकि दूसरा आधा एक पुण्य जीवन का नेतृत्व करके पूरा होता है। विचार के अन्य विद्यालयों में कहा गया है कि एक आदमी के पास वैध आजीविका चलाने के लिए साधन होना चाहिए जिससे महर का भुगतान, पत्नी व बच्चों का सहारा बन सके। विवाह भी इंसानों के बीच मुआमलात या सांसारिक मामलों और लेन-देन की प्रकृति का हिस्सा है। इस्लाम में विवाह एक सुन्नत है अर्थात प्रथाओं , शिक्षाओं , विशिष्ट शब्दों , आदतों , रीति-रिवाज़ों और जीवन के तरीके , परिवार , दोस्तों और व्यवहार में सरकार , पैगंबर द्वारा खुद का प्रचार और अभ्यास करती है। इस्लाम के तहत सिंग्लहूड , अद्वैतवाद और ब्रह्मचर्य की मनाही है।
मुस्लिम विवाह कानून: एक वैध विवाह की औपचारिकता
मुस्लिम विवाह कानून के अनुसार किसी निकाह को रद्द करने के लिए कोई निर्धारित समारोह या औपचारिकताएं या विशेष संस्कार और रस्में नहीं होती हैं। कुछ कानूनी और उचित शर्तें , जो इस्लाम की भावना के विपरीत नहीं हैं , को शादी के समय अनुबंध में जोड़ा जा सकता है लेकिन , निम्नलिखित आवश्यकताएं अनिवार्य हैं:
i शादी के स्तंभ इज़ब-ओ-कुबूल हैं , यानी , एक पक्ष की ओर से शादी या दूसरे पक्ष द्वारा स्वीकृति के लिए प्रस्ताव।
ii यह स्वतंत्र और आपसी सहमति स्पष्ट शब्दों में एक और एक ही बैठक में व्यक्त की जानी चाहिए।
iii यदि पक्ष हनाफिस हैं तो 2 गवाहों की उपस्थिति की आवश्यकता होती है अगर पक्ष शियाओं है तो किसी गवाह की जरूरत नहीं है।
iv वर और वधू दोनों को युवावस्था प्राप्त हुई हो। (जरूरी नहीं कि बहुमत की कानूनी उम्र)
v दोनों पक्ष , अर्थात , वर और वधू या , जब नाबालिग तो उनके अभिभावक स्वस्थ मन के होने चाहिए।
vi रक्त संबंध के नियमों, आत्मीयता या जोश , पार्टियों के रैंक / सामाजिक स्थिति या धर्म में अंतर , एक महिला के पुनर्विवाह के मामले में इद्दत का पर्चे , आदि , संप्रदायों के आधार पर , विवाह को निषिद्ध नहीं होना चाहिए।
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मुस्लिम विवाह कानून: गैर-आवश्यक सीमा शुल्क
निकाह एक काज़ी द्वारा पढ़ा जाता है जो शादी के उपदेश (कुरान और हदीस से सार) को पढ़ता है , वहाँ उपहारों का आदान-प्रदान हो सकता है । मेहमानों द्वारा नव-विवाहित जोड़े के स्वास्थ्य और खुशी के लिए प्रार्थना की जाती है और दोनों पक्षों के लिए अतिरिक्त मौलवी उपस्थित रहते है लेकिन भारतीय मुसलमानों के बीच ये प्रथाएं विभिन्न हो सकती है और आवश्यक कानूनी आवश्यकताएं की जरूरत नहीं होती हैं। शादी का पंजीकरण अनिवार्य नहीं है , हालांकि इससे शादी को साबित करने के संबंध में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।
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मुस्लिम विवाह कानून: वैध विवाह का कानूनी प्रभाव
एक वैध विवाह के परिणामस्वरूप , युगल के बीच संभोग कानूनी हो जाता है। संघ से पैदा हुए बच्चे वैध होता हैं। मुस्लिम मैरिज लॉ के अनुसार पति को भोजन , कपड़े , रहने के तरीके के लिए पत्नी के भरण-पोषण के लिए अपनी पत्नी का साथ आजीवन साथ देना होता है और जीवन में एक दूसरे का समर्थन देने के लिए ऐसी सभी चीजों की आवश्यकता हो सकती है । जब तक पत्नी नाबालिक नहीं हो वशीकरण , वफादार है पति उसके साथ रहता है और उसके उचित आदेशों का पालन करता है , भले ही पत्नी के पास खुद का समर्थन करने का साधन हो और पति न हो। विवाह अनुबंध में निर्धारित किसी भी नियम और शर्तों का पालन किया जाना चाहिए। विवाह अनुबंध में निर्धारित किसी भी नियम और शर्तों का पालन किया जाना चाहिए। पत्नी , पत्नी के सम्मान के एक चिह्न के रूप में पति से धन या अन्य संपत्ति के लिए धन या महर की हक़दार है , जिसकी राशि शादी से पहले या बाद में तय की जा सकती है , और मांग या विघटन पर या तो देय हो सकती है मृत्यु या तलाक से शादी (हालांकि अलग-अलग स्कूलों और संप्रदायों में एक ही के लिए भुगतान की शर्तों के बारे में अलग-अलग नियम हैं और कैसे या कब पत्नी उसी पर अपना अधिकार जताती है)। वे एक दूसरे से संपत्ति विरासत में ले सकते हैं। हालांकि , न तो पति और न ही पत्नी शादी के कारण एक-दूसरे की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं जमा सकते हैं।
मुस्लिम विवाह कानून: तलाक
मुस्लिम विवाह कानून के अनुसार तलाक की अनुमति इस्लाम के तहत है और इसे दोनों पक्षों द्वारा शुरू किया जा सकता है। अगर पत्नी अपने पति के लिए आज्ञाकारी और वफ़ादारी है, तो कुरान एक व्यक्ति को अपनी पत्नी को तलाक देने के लिए प्रीटेक्स की मांग करने से मना करता है । पैगंबर ने पति द्वारा तलाक की बेलगाम शक्ति पर अंकुश लगाया और पत्नी को वाजिब हक दिलाने का अधिकार दिया है। द डिसॉल्विंग ऑफ मुस्लिम मैरिज एक्ट , 1939 के लिए भी यही प्रावधान किया गया है। पैगंबर द्वारा तलाक की अनुमति दी गई थी , लेकिन प्रोत्साहित नहीं किया गया था। आपसी सहमति से विवाह को भंग भी किया जा सकता है। विभिन्न संप्रदायों के लिए तलाक के आधार और नियम अलग-अलग हैं। पिता या पिता के पिता के अलावा , उसके या उसके वैध अभिभावक द्वारा विवादित नाबालिक , यौवन प्राप्त करने पर विवाह को रद्द कर सकता है। तलाक के बाद , युगल के बीच सहवास अवैध हो जाता है और एक बार तलाक फाइनल हो जाने के बाद , वे एक दूसरे से संपत्ति नहीं ले सकते। यदि महर की कोई शेष राशि हो तो देय हो जाती है। इद्दत की अवधि के दौरान पत्नी को करण-शोषण का अधिकार है। दंपति के बीच पुनर्विवाह तभी संभव है जब तलाक़शुदा पत्नी इद्दत के बाद पुनर्विवाह करती है और उसे दूसरे पति द्वारा स्वेच्छा से भंग कर दिया जाता है और पत्नी फिर से इबादत करती है।
मुस्लिम विवाह कानून: पुनर्विवाह
मुस्लिम मैरिज लॉ के अनुसार , विधवा और तलाक़शुदा को फिर से शादी करने की स्वतंत्रता है। पति की मृत्यु या तलाक की स्थिति में महिला को पहले इद्दत की अवधि , या प्रतीक्षा की अवधि का पालन करना चाहिए । उसकी उम्र चाहे जो भी हो इद्दत पूरी होने के बाद वह पुनर्विवाह कर सकती है। यदि विवाह तलाक से भंग हो गया था और उसका उपभोग किया गया था या वह गर्भवती है, तो प्रतीक्षा की अवधि उसके मासिक धर्म चक्र के 3 पाठ्यक्रमों यानी बच्चे की डिलीवरी तक के बाद वह पुनर्विवाह कर सकती है। यदि पति की मृत्यु के कारण पहली शादी समाप्त हो गई , तो अपनी इद्दत की प्रतीक्षा की अवधि 4 महीने और 10 दिन की पूरी होने के बाद और यदि गर्भवती है , तो बच्चे की डिलीवरी तक , जो भी अवधि हो को पूरा करने के बाद वह शादी कर सकत है।
मुस्लिम विवाह कानून: इस्लाम में बहुविवाह
इस्लाम में , एक बार विवाह करना का सामान्य नियम है जबकि बहुविवाह केवल एक अपवाद है। पैगंबर असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर बहुविवाह के पक्ष में नहीं थे। मुस्लिम मैरिज लॉ के अनुसार , एक पुरुष की 4 पत्नियाँ हो सकती हैं , लेकिन एक महिला एक समय में केवल एक ही पति रख सकती है। भारत में , महिला की आबादी कम है और बहुविवाह व बच्चों के समर्थन के आर्थिक बोझ को जोड़ता है। भारत में इस्लाम के तहत बहुविवाह को समाप्त नहीं किया गया है , लेकिन यह व्यापक रूप से भी प्रचलित नहीं है और अक्सर इसे विवाह अनुबंध में एक विशेष खंड के खिलाफ प्रदान किया जाता है जो इसे नैतिक रूप से आक्रामक पाते हैं। दूल्हे के साथ-साथ दूल्हे के लिए निकाहनामा में एक शर्त के रूप में एकरसता को निर्धारित किया जा सकता है और एक बार हस्ताक्षर करने के बाद , उसे किसी अन्य व्यक्ति के साथ किसी भी औपचारिक या अनौपचारिक विवाह अनुबंध में प्रवेश नहीं करने की आवश्यकता होती है। यह सलाह दी जाती है कि दूल्हा और दुल्हन व्यक्तिगत रूप से इस फॉर्म को ध्यान से पढ़ें और इस पर हस्ताक्षर करने से पहले अच्छी तरह से विचार करें क्योंकि यह दस्तावेज़ दोनों पक्षों के अधिकारों और दायित्वों , व्यक्तिगत विवरण और अपेक्षाओं , महर की राशि और इसमें कैसे परिवर्तित किया जाना है अथवा दोनों पक्षों पर प्रतिबंध , असहमति या तलाक के मामले में परिणाम आदि का विवरण होता है।
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Nithya Ramani Iyer
Nithya Ramani Iyer is an experienced content and communications leader at Zolvit (formerly Vakilsearch), specializing in legal drafting, fundraising, and content marketing. With a strong academic foundation, including a BSc in Visual Communication, BA in Criminology, and MSc in Criminology and Forensics, she blends creativity with analytical precision. Over the past nine years, Nithya has driven business growth by creating and executing strategic content initiatives that resonate with target audiences. She excels in simplifying complex concepts into clear, engaging content while developing high-impact marketing strategies. Nithya's unique expertise in legal content and marketing makes her a key asset to the Zolvit team, enhancing brand visibility and fostering meaningful audience engagement.
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